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महासमर - कर्म

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3190
आईएसबीएन :81-7055-229-X

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महाभारत तथा उसके पात्रों पर आधारित पुस्तक... आधुनिक दृष्टिकोण से।

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Karm - This book is a part of mulitple volumes and the story is the same as of Mahabharat, but with a new persective

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

प्रख्यात् कथाओं का पुनर्सृजन, उन कथाओं का संशोधन अथवा पुनर्लेखन नहीं होता वह उनका युग-सापेक्ष अनुकूलन मात्र भी नहीं होता। पीपल के बीज से उत्पन्न प्रत्येक वृक्ष पीपल होते हुए भी, स्वयं में एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है, वह न किसी का अनुसरण है, न किसी का नया संस्करण ! मौलिक उपन्यास का भी यही सत्य है।

मानवता के शाश्वत प्रश्नों का साक्षात्कार लेखक अपने गली मुहल्ले, नगर देश, समाचार-पत्रों तथा समकालीन इतिहास में आबद्ध होकर भी करता है; और मानव सभ्यता तथा संस्कृति की सम्पूर्ण जातीय स्मृति के सम्मुख बैठकर भी। पौराणिक उपन्यासकार के ‘प्राचीन’ में घिरकर प्रगति के प्रति अंधे हो जाने की संभावना उतनी ही घातक है, जितनी समकालीन लेखक की समसामयिक पत्रकारिता में बंदी हो एक खण्ड सत्य को पूर्ण सत्य मानने की मूढ़ता। सृजक साहित्यकार का सत्य अपने काल-खण्ड का अंग होते हुए भी, खंडों के अतिक्रमण का लक्ष्य लेकर चलता है।

नरेन्द्र कोहली का नया उपन्यास है ‘महासमर’। घटनाएँ तथा पात्र महाभारत से संबद्ध हैं, किन्तु यह कृति का एक उपन्यास है-आज के एक लेखक का मौलिक सृजन।

 

कर्म

 

कुंती और पांडवों के प्रबल आग्रह के बाद भी कृष्ण और उनके साथी, युधिष्ठिर के युवराज्याभिषेक के पश्चात् हस्तिनापुर में नहीं रुके। कृष्ण ने केवल इतना ही बताया कि उन लोगों का मथुरा पहुँचना आवश्यक था। भीम की बहुत इच्छा थी कि बलराम अभी कुछ दिन और रुकते तो भीम का गदा-युद्ध और मल्ल-युद्ध का अभ्यास और आगे बढ़ता। बलराम को इसमें कोई आपत्ति भी नहीं थी। वे मथुरा लौटने के लिए बहुत आतुर भी नहीं दिखते थे; फिर भी कृष्ण के बिना, वे हस्तिनापुर में रुक नहीं सकते थे।

कृष्ण ने चाहे उन्हें कुछ नहीं बताया था, किंतु यादवों के मथुरा लौट जाने के पश्चात् युधिष्ठिर को भी चारों ओर से अनेक समाचार मिलने लगे थे।...जरासंध का सैनिक अभियान अब गुप्त नहीं रह गया था। विभिन्न राजसभाओं से राजदूत एक-दूसरे के पास जा रहे थे। पांचालों और यादवों में कोई प्रत्यक्ष संधि तो नहीं हुई थी; किंतु पांचालों ने जरासंध के सैनिक अभियानों में सम्मिलित होने की कोई तत्परता नहीं दिखायी थी। यादवों को वे अपने मित्र ही लग रहे थे। जरासंध ने हस्तिनापुर की राजसभा में कोई भी राजदूत नहीं भेजा था; किंतु यह समाचार प्रायः सबको ही ज्ञात हो गया था कि जरासंध ने काल यवन के साथ किसी प्रकार का कोई समझौता कर लिया था; और संभवतः वे दोनों एक ही समय में विभिन्न दिशाओं से मथुरा पर आक्रमण करने वाले थे। निश्चित रूप से यादवों के लिए यह विकट संकट की घड़ी थी।
‘‘हमें कृष्ण की सहायता के लिए जाना चाहिए।’’ अर्जुन ने कहा।

‘‘जाना चाहिए का क्या अर्थ! हमें चल ही पड़ना चाहिए।’’ भीम ने उग्र भाव से समर्थन किया, ‘‘मथुरा में वे लोग उन राक्षसों की नृशंस सेनाओं से जूझ रहे हों, और हम यहाँ शांति से बैठे रहें !’’
‘‘ठीक कहते हो तुम लोग।’’ युधिष्ठिर तो सहमत था; किंतु वह मुक्त भाव से कुछ कह नहीं पा रहा था।
‘‘क्या बात है पुत्र !’’ कुंती ने युधिष्ठिर के मनोभाव को कुछ-कुछ समझते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारे मन में उत्साह नहीं है।’’

‘‘भैया के मन में युद्ध के लिए कभी भी कोई उत्साह नहीं होता।’’ नकुल ने धीरे से कहा, ‘‘वे सदा शांति ही चाहते हैं।’’
‘‘तो यह युद्ध भी तो शांति स्थापित करने के लिए ही है।’’ भीम ने उत्तर दिया, ‘‘हम इन दुष्टों का विरोध नहीं करेंगे, तो वे लोग संसार में कभी शांति रहने ही नहीं देंगे।’’

‘‘पितृव्य का विचार है कि अब, जब कि जरासंध मथुरा की ओर चल पड़ा है, और कांपिल्य को उसका भय नहीं रह गया है—पांचाल अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए, हस्तिनापुर पर आक्रमण कर सकते हैं इसलिए भीम और अर्जुन को हस्तिनापुर छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहिए।’’

‘‘एक तो ऐसा कुछ नहीं होगा।’’ अर्जुन बोला, ‘‘यादवों की सहायता के बिना, पांचाल हस्तिनापुर पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकते।....इस समय उन्हें न तो यादवों की सहायता मिल सकती है; और न ही ज्येष्ठ के युवराज बन जाने पर, यादव हस्तिनापुर पर आक्रमण में सहायक होंगे।...आप इतनी-सी बात पितृव्य को समझा नहीं सकते ? और यदि पांचालों ने आक्रमण किया ही तो, हम दो ही तो नहीं होंगे। शेष सब लोग तो हैं। दुर्योधन, कर्ण और अश्वत्थामा को भी वीरता प्रकट करने का अवसर मिल जायेगा।’’

‘‘पितृव्य कहते नहीं हैं, किंतु उनके मन में है कि पांचालों से यह शत्रुता, अर्जुन और भीम ने मोल ली है—इसलिए यदि पांचालों पर आक्रमण हुआ तो उसका सामना अर्जुन और भीम को ही करना चाहिए। इसलिए वे अर्जुन और भीम को कदाचित् मथुरा जाने की अनुमति न दें।’’
‘‘इस शत्रुता के मूल में तो आचार्य द्रोण हैं।’’ भीम व्यग्र होकर बोला, ‘‘वे ही इस समय सेनाओं और सेनापतियों के संचालक भी हैं—वे क्यों पांचालों से हस्तिनापुर की रक्षा नहीं करेंगे ?’’

‘‘वे सेनाओं के प्रशिक्षक और संचालक हैं। वे ब्राह्मण हैं, गुरु हैं। वे युद्ध करने नहीं जायेंगे।’’
भीम कुछ प्रचंड हुआ, ‘‘दुर्योधन नहीं लड़ेगा, दुःशासन नहीं लड़ेगा, कर्ण नहीं लड़ेगा, अश्वत्थामा नहीं लड़ेगा। आचार्य नहीं लड़ेंगे, तो युद्ध कौन करेगा—केवल भीम और अर्जुन ?’’
‘‘हाँ,’’ युधिष्ठिर शांत भाव से बोला, ‘‘वे यह जता देना चाहते हैं कि युधिष्ठिर युवराज हैं, हस्तिनापुर का भावी राजा है। हस्तिनापुर उसका है। इसलिए उसकी रक्षा युधिष्ठिर और उसके भाई ही करें। अन्य लोग क्यों हस्तिनापुर के लिए अपने प्राण दें ?’’

‘‘ठीक है। अन्य लोग हस्तिनापुर की रक्षा के लिए के लिए प्राण न दें।’’ भीम बोला, ‘‘किंतु जो लोग प्राण नहीं दे सकते, उनका पालन-पोषण हस्तिनापुर के राजकोष से क्यों हो ? उनके विलास के साधन हस्तिनापुर क्यों उपलब्ध कराये ?’’
‘‘इसका अर्थ केवल इतना ही है कि वे जरासंध के विरुद्ध यादवों की तनिक भी सहायता नहीं करना चाहते।’’ कुंती बोली, ‘‘वे समझते हैं कि मथुरा में यादव जितने शक्तिशाली होंगे—हस्तिनापुर में पांडव भी उतने ही प्रबल होंगे; इसलिए पांडव को दुर्बल करने का एक मार्ग यह भी है कि मथुरा के यादवों की शक्ति नष्ट होने दी जाये।’’ कुंती ने रुककर अपने पुत्रों को देखा, ‘‘तुम्हारे पितृव्य ने युधिष्ठिर को युवराज चाहे बना दिया हो, किंतु तुम्हारे प्रति विरोध और द्वेष वे अब भी त्याग नहीं कर पाये हैं।’’

‘‘ठीक है। उनके मन में जो आये, करते रहें, हम तो मथुरा जायेंगे।’’ भीम ने अपना निश्चय सुना दिया, ‘‘यदि वे रोक सकते हों, तो रोक लें।’’
‘‘नहीं भीम ! यह उचित नहीं है।’’ युधिष्ठिर की आँखों में पूर्ण निषेध था, ‘‘यदि तुमने ऐसा किया तो, राजवंश की मर्यादा भंग हो जायेगी और स्वेच्छाचारिता का मार्ग खुल जायेगा। राजा की आज्ञा का उल्लंघन हमें नहीं करना है। यदि आज हम वर्तमान राजा की आज्ञा का उल्लंघन करेंगे, तो मैं राजा बनकर किसी को आज्ञापालन के लिए कैसे कह सकूँगा ?’’
‘‘तो क्या हम उनकी सारी अनुचित और धर्मशून्य आज्ञाओं का पालन करते रहेंगे ?’’

‘‘जब तक हम उन्हें अपना राजा मानते हैं, तब तक आज्ञा के औचित्य पर विचार करने का अधिकार हमें नहीं है,’’ युधिष्ठिर बहुत कोमल स्वर में बोला, ‘‘वस्तुतः मर्यादा को भंग करना तो तनिक भी कठिन नहीं है; कठिन है मर्यादा का निर्वाह करना। निर्वाह के निर्माण में वर्षों लगते हैं, और भंग करने में क्षण भी नहीं लगता।’’
‘‘तो कृष्ण वहाँ अपने प्राणों पर खेलता रहे और हम यहाँ बैठे पितृव्य की अनुमति की प्रतीक्षा करते रहें ?’’ भीम किसी भी प्रकार सहमत नहीं हो रहा था।

‘‘नहीं ! हम बैठे क्यों रहेंगे ? हम अपनी मर्यादा के भीतर ही कोई अन्य मार्ग खोजेंगे। विधान के निर्माता, अपने बनाये विधान का उल्लंघन नहीं कर सकते। हम अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं करेंगे, वचन का उल्लंघन नहीं करेंगे, मर्यादा का खंडन नहीं करेंगे। धर्म-विरोधी आचरण हम नहीं करेंगे। हम कोई-न-कोई मार्ग खोजेंगे ही।’’ युधिष्ठिर ने निष्ठापूर्ण दृढ़ता के साथ कहा।

राजसभा में आज दुर्योधन और उसके भाई कुछ अधिक ही उत्साह के साथ आये थे। उनके चेहरे उल्लसित थे; अन्यथा जब से युधिष्ठिर का युवराज्याभिषेक हुआ था, विकर्ण और युयुत्सु के सिवाय, दुर्योधन के शेष भाई या तो राजसभा में आते ही नहीं थे, या फिर निरुत्साहित-से, सिर झुकाये बैठे रहते थे, आज दुर्योधन के साथ कर्ण और अश्वत्थामा भी थे। धृतराष्ट्र के निकट शकुनि तथा मंत्री कणिक बैठे थे।

सभा में शांति हो गयी तो धृतराष्ट्र ने बात आरंभ की, ‘‘पांडु की मृत्यु के पश्चात् से मैं दृष्टिहीन और असमर्थ व्यक्ति हस्तिनापुर का राजा बना। मेरा कोई युवराज भी नहीं था। राजकुमार बालक थे और शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि हस्तिनापुर का तेज शीमित ही रहा। तब से आज तक एक भी बार हस्तिनापुर की सेना किसी दिशा में धन-ग्रहण के लिए नहीं गयी। अब युधिष्ठिर हमारे युवराज हैं। अपने अभिषेक के पश्चात् प्रत्येक राजा और राजकुमार अपने शौर्य की प्रतिष्ठा के लिए, सैनिक अभियान करता है। मैं चाहता हूँ कि युवराज युधिष्ठर कि प्रतिष्ठा के साथ-साथ, हस्तिनापुर का तेज भी पुनर्स्थापित हो। इसलिए रंगशाला में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ योद्धा सिद्ध करने वाले अर्जुन और भीम, युवराज युधिष्ठिर का ध्वज लेकर, अपने भाइयों, नकुल और सहदेव के साथ दिग्विजय के लिए जायें और पराजित राजाओं से धन का संग्रह कर, हस्तिनापुर का रिक्त राजकोष परिपूरित करें।’’

दुर्योधन की आँखें खुली-की-खुली रह गयीं: आज पिताजी ने अपना वचन पूरा कर दिया था। उन्होंने न केवल पाँचों भाइयों को अलग कर दिया था; चार को तो व्यावहारिक रूप से देश-बहिष्कृत ही कर दिया था। अब जायें ये, वनों और मरुभूमियों का आनंद लें। युद्ध करें। मरें, खपें। अपने लिए अधिक-से-अधिक शत्रु उत्पन्न करें।...दुर्योधन का मन हुआ, जोर का एक अट्टहास करे; और उच्च स्वर में कहे—लो ! भोग लो हस्तिनापुर का राज्य !
‘‘महाराज !’’ युधिष्ठिर उठकर खड़ा हो गया।
‘‘बोलो युवराज !’’

‘‘मैं जानता हूँ कि क्षत्रिय-कर्म मूलतः शस्त्र-कर्म ही है। यह भी जानता हूँ कि राजाओं के लिए दुष्ट-दलन तथा आत्मरक्षा के लिए युद्ध करना अनिवार्य हो जाता है। आपद्धर्म के रूप में शस्त्र-कर्म और युद्ध से मेरा विरोध भी नहीं है। किंतु महाराज ! अनावश्यक हिंसा तो हमारा धर्म नहीं है। और मैंने युवराज की प्रतीक्षा के रूप में आनृशंसता का संकल्प किया है।...’’
‘‘तो तुम चाहते हो कि अर्जुन और भीम सैनिक अभियान पर न जायें ?’’ धृतराष्ट्र के स्वर में जिज्ञासा से अधिक उपालंभ और रोष था।

‘‘मैं उसे नीति-विरुद्ध समझता हूँ।’’ युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। अनावश्यक हिंसा तो पाप है महाराज ! हस्तिनापुर के राजकोष को समृद्ध करने के लिए और अनेक साधन हो सकते हैं। राजा यदि कृषक को अधिक सुविधा दे, तो कृषक के साथ राज्य भी संपन्न होता है। राजा देश में शांति और न्याय की स्थापना करे तो उद्योग विकसित होते हैं। राज्य में अच्छे मार्ग हों और उन पर यात्री सुरक्षित यात्रा कर सकें तो व्यापार की वृद्धि होती है महाराज ! जिस राज्य में उद्योग तथा व्यापार विकसित होगा, वह राज्य तो स्वयं ही समृद्ध तथा सम्पन्न हो जायेगा।..सैनिक अभियान आरम्भ करना और अन्य न्यायी तथा शत्रुभाव न रखने वाले राजाओं का धन छीनकर ले आना धर्म नहीं, दस्युवृत्ति है तात !’’

धृतराष्ट्र का स्वर अकस्मात् ही कोमल हो गया, ‘‘युवराज ने यह बात विचारकर नहीं कही। तुम्हारे पूर्वज आज तक अपना सम्मान बढ़ाने के लिए, अपनी प्रतिभाएँ पूर्ण करने के लिए, स्वयं को समृद्ध करने के लिए, बल-प्रयोग ही करते आये हैं पुत्र ! क्या वे पाप ही करते रहे हैं ? हस्तिनापुर के युवराज क्या अपने पूर्वजों का यही सम्मान करते हैं ?’’

युधिष्ठिर को जैसे तत्काल कोई उत्तर नहीं सूझा। क्षणभर सिर झुकाए चिंतन करता रहा और फिर बोला, ‘‘महाराज ! मैं अपने पूर्वजों के प्रति अनादर की बात सोच भी नहीं सकता। उनके द्वारा बल-प्रयोग के अपने कारण और अपने तर्क रहे होंगे। किंतु महाराज ! अपने पूर्वजों का पूर्ण आदर और सम्मान करते हुए भी, कोई पीढ़ी उनका अनुकरण नहीं करती। युग और परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ हमारा चिंतन आर व्यवहार भी बदलता है। वर्तमान परिस्थितियों में मुझे इस सैनिक-अभियान का कोई औचित्य दिखायी नहीं पड़ता।’’

‘‘तो क्या युवराज राजाज्ञा का विरोध कर रहे हैं ?’’ धृतराष्ट्र ने सायास कोमल स्वर में पूछा।
‘‘नहीं महाराज !’’ युधिष्ठिर ने तत्काल उत्तर दिया, ‘‘मैं तो मात्र विचार कर रहा हूँ। विचार के पश्चात् भी महाराज को यदि अपनी आज्ञा में परिवर्तन की आवश्यकता का अनुभव न हो, तो राजाज्ञा का पालन किया जायेगा।’’
‘‘तो युवराज चाहते हैं कि हम पूर्वजों का अनुकरण न करें और अपना व्यवहार बदलें ?’’
‘‘हाँ, महाराज !’’

‘‘तो युवराज अपने भाइयों के साथ पंचालराज द्रुपद पर आक्रमण करने क्यों गये थे ? क्या उस आक्रमण को उचित ठहराने के लिए युवराज के पास कोई तर्क है ?’’
युधिष्ठिर की मुद्रा से लगा कि शायद तर्क तो उसके पास है, किंतु वह उसे वाणी देना नहीं चाहता।
‘‘बोलो युवराज !’’ धृतराष्ट्र ने कहा, ‘‘वह अभियान तो तुम्हारे ही ध्वज के अधीन हुआ था। तुम्हारी अनुमति और सहयोग से हुआ था।’’

‘‘महाराज ठीक कहते हैं।’’ युधिष्ठिर बोला, ‘‘किंतु इस विषय में अपने विचार, मैं अपना विचार सार्वजनिक रूप से प्रकट न करना चाहूँ तो ?’’
‘‘क्यों ? क्या सत्यवादी युधिष्ठिर इस गोपनीयता की आड़ में सत्य को छिपाने का प्रयत्न कर रहा है ?’’ धृतराष्ट्र की वाणी मधुर और कोमल थी, किंतु उसके शब्दों की ध्वनि अत्यंत विषैली थी।
‘‘नहीं ! सत्य को छिपाने का प्रयत्न मैं नहीं कर रहा।’’ युधिष्ठिर के शब्दों में तेज झलका, ‘‘मुझे भय है कि मेरे मत को कहीं गुरुजनों के प्रति अनादर न मान लिया जाये।’’

‘‘अनादर की बात नहीं है। यह तो विचार-विमर्श है और विचार-विमर्श में मत-भेद होगा ही। मत-भेद में आदर और अनादर का प्रश्न ही नहीं।’’ धृतराष्ट्र बोला, ‘‘यदि आदर-अनादर के प्रसंग के छद्म में युवराज अपना स्वतंत्र मत प्रकट नहीं करेंगे, तो राजकाज में हानि होगी।’’

युधिष्ठिर के युवराजत्व के निर्णय के दिन से ही भीष्म एक प्रकार के हल्के सुखद विश्राम का-सा अनुभव कर रहे थे। उनकी स्थिति उस पथिक की-सी हो गयी थी, जो गंतव्य खोजते-खोजते, इतना चल चुका हो कि उसे लगने लगा हो कि शायद उसे गंतव्य कभी नहीं मिलेगा। किंतु, अब उन्हें गंतव्य मिल गया था। हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर उसका अधिकारी और योग्य व्यक्ति आसीन होगा—यह निश्चय हो गया था। युधिष्ठिर, सम्राट पांडु का भी ज्येष्ठ पुत्र था, और कुरु राजकुमारों में सबसे बड़ा था। वह सर्वश्रेष्ठ योद्धा न सही, अच्छा योद्धा था और उसकी रक्षा के लिए उसके वीर और समर्थ भाई उसके साथ थे। यदि दुर्योधन किसी दिन अपनी दुर्गति छोड़कर युधिष्ठिर से सहयोग करने लगे तो कुरु-वंश और हस्तिनापुर का राज्य...दोनों ही पूर्णतः सुरक्षित हो जायेंगे....

जिस क्षण भीष्म को तनिक भी आभास होता था कि वे अपना दायित्व पूरा कर चुके हैं; और अब वे मुक्त हो सकते हैं—उन्हें गंगातट की अपनी कुटिया पुकारने लगती थी....
किंतु जो कुछ अब उनके सामने घटित हो रहा था—यह उन्हें बहुत शुभ नहीं लग रहा था। राजा और युवराज का न इस प्रकार मतभेद होना चाहिए और न ही राजा को अपने युवराज के साथ इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए—जैसे कोई न्यायाधिकारी किसी अपराधी के साथ करता है। यदि राजा और युवराज ही राज्य की नीतियों पर सहमत नहीं होंगे, तो शेष मंत्रियों और राज्याधिकारियों का क्या होगा ?

और वह युवराज भी कैसा है ? यह युद्ध का विरोध कर रहा है। भीष्म को सोच-सोचकर भी शायद ही कोई ऐसा क्षत्रिय स्मरण आये, जो युद्ध के लिए व्यग्र न हो, अथवा युद्ध को अच्छा न समझता हो; अथवा हिंसा को पाप कहता हो।...पर युधिष्ठिर तो आरंभ से ही ऐसा है। वह सत्य, न्याय, समता और आनृशंसता की बात करता है। वस्तुतः वह धर्म पर चलना चाहता है। धर्म का मार्ग उसे सत्य की ओर ले जाता है। सत्य के लिए न्याय आवश्यक है। न्याय के लिए समता चाहिए। समता के लिए आनृशंसता। दूसरे पक्ष को भी उतना ही अधिकार देना पड़ेगा, जितना हम अपने लिए चाहते हैं।...और यदि युधिष्ठिर आरंभ से ही ऐसा न होता, तो अब तक पांडवों और धृतराष्ट्रों में युद्ध हो चुका होता। यह तो युधिष्ठिर की ही सहनशीलता है...

धृतराष्ट्र सचमुच ही युधिष्ठिर पर अनावश्यक दबाव डाल रहा था। दबाव नहीं—कदाचित् वह उसे घेर रहा था। इस प्रकार घेर रहा था कि निरीह से निरीह जंतु भी अपनी रक्षा के लिए आक्रमण करने को बाध्य हो जाये...किंतु धृतराष्ट्र को रोका कैसे जा सकता है...वह राजसभा में अपने युवराज से विचार-विमर्श कर रहा है...
‘‘युवराज ने अपना मत नहीं बताया !’’ धृतराष्ट्र ने पुनः कहा।
‘‘यदि महाराज का इतना ही आग्रह है, तो मैं अपना मत अवश्य प्रस्तुत करूँगा; किंतु, कृपया, इसे नीति का भेद ही माना जाये, गुरुजनों के प्रति अनादर नहीं।’’

धृतराष्ट्र ने कुछ नहीं कहा, केवल अपनी दृष्टिहीन आँखें उसकी ओर उठाये प्रतीक्षा करता रहा, जैसे भूमिका-स्वरूप युधिष्ठिर जो कुछ कह रहा था, उसका कोई अर्थ ही न हो।
‘‘पंचालराज पर मेरे ध्वज के अधीन किया गया आक्रमण न मेरी इच्छा से हुआ और न मैं उसे उचित ही समझता हूँ।’’
‘‘तो फिर क्यों किया गया आक्रमण ?’’ धृतराष्ट्र के स्वर में हल्की उत्तेजना थी।
‘‘गुरु दक्षिणा चुकाने के लिए।’’ युधिष्ठिर स्थिर स्वर में बोला, ‘‘गुरु-दक्षिणा, याचना नहीं होती कि उसके औचित्य-अनौचित्य पर विचार किया जाये। वह आदेश होता है, जिसका केवल पालन किया जा सकता है। उसके औचित्य-अनौचित्य पर विचार करना गुरु का कार्य है, शिष्य का नहीं ! उसका दायित्व गुरु का है, शिष्य का नहीं।

मैं गुरु-द्रोही नहीं हूँ, इसलिए गुरु-दक्षिणार्थ किये गये, उस अभियान में असहयोग नहीं कर सकता था।’’
युधिष्ठिर ने अत्यन्त भीरु दृष्टि से भीष्म की ओर देखा : वे सिर झुकाये, आत्मलीन से कुछ सोच रहे थे। फिर उसकी दृष्टि आचार्य की ओर गयी—वे भाव-शून्य, स्तब्ध-से बैठे थे। निश्चित रूप से उनके लिए युधिष्ठिर का कथन अत्यधिक अनपेक्षित था।...
‘‘और मैं पूछ सकता हूँ कि युवराज उस अभियान को उचित क्यों नहीं समझते ?’’ धृतराष्ट्र के स्वर में पूर्णतः अमित्र भाव था।

‘‘क्योंकि उस अभियान के मूल में धर्म नहीं, प्रतिहिंसा थी; और प्रतिहिंसा का जन्म नृशंसता से होता है।’’
धृतराष्ट्र भी क्षण भर के लिए अवाक् रह गया; किंन्तु उसने स्वयं को तत्काल सँभाल लिया, ‘‘क्या आचार्य को अपने अपमान का प्रतिशोध लेने का अधिकार नहीं था ?’’

‘‘मैं अपने गुरु के आचरण का विश्लेषण इस रूप में नहीं करना चाहता।’’
‘‘जब युवराज ने प्रतिहिंसा को नृशंसता बताया है, तो उसका कारण बताने में संकोच क्यों ?’’ धृतराष्ट्र अधिक-से-अधिक क्रूर होता जा रहा था, ‘‘तुम अपने गुरु के आचरण का विश्लेषण तो कर चुके वत्स ! उस पर अपनी टिप्पणी भी कर चुके ! अब यदि तुम उसका कारण नहीं बताओगे तो अपने गुरु पर निराधार दोषारोपण के अपराधी नहीं कहलाओगे क्या ?’’
युधिष्ठिर को लगा : सत्य ही वह इतना आगे बढ़ आया था कि अब पीछे लौट पाना संभव नहीं था।

‘‘ब्राह्मण को क्षमाशील होना चाहिए। दोष को क्षमा करने से न उस दोष का विस्तार होता है, न उसका वंश आगे चलता है।’’ युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘किंतु प्रतिशोध और प्रतिहिंसा की भावना, प्रतिक्रिया की अंतहीन श्रृंखला को जन्म देती है। प्रतिशोध के इस सफल अभियान से प्रतिहिंसा समाप्त नहीं हुई है महाराज ! उसने कौरवों और पांचालों की अमैत्री को शत्रुता में परिणत कर दिया है। आचार्य ब्राह्मण होकर भी पंचालराज को क्षमा नहीं कर सके, तो पंचालराज क्या अपने इस भयंकर अपमान, पराजय तथा आधे राज्य की हानि को भूल जायेंगे ?’’

युधिष्ठिर ने रुककर धृतराष्ट्र को देखा, ‘‘और महाराज ! इतना बड़ा प्रतिशोध लेने से पूर्व, हमें यह भी विचार करना चाहिए कि उस अपमान का स्वरूप क्या था ? क्या वह सचमुच अपमान था भी ? क्या हम पंचालराज के उस नीति-वाक्य को आचार्य का अपमान मान भी सकते हैं ? क्या आज तक किसी ऋषि और राजा में मैत्री हुई है ? क्या ऋषि कृष्ण द्वैपायन व्यास और हस्तिनापुर के किसी सम्राट में कभी मित्रता हुई है ? जो संबंध राजाओं और ऋषियों में है, उन्हें सौहार्द, पूजा-भाव, श्रद्धा, स्नेह इत्यादि के अंतर्गत रखा जायेगा अथवा मैत्री के अंतर्गत ?...और यदि किसी कारणवश कोई हमें अपना मित्र नहीं मानता तो हम उसे अपना अपमान समझ, उसका प्रतिशोध लेंगे ?’’

‘‘नहीं ! यह बात नहीं है।’’ अकस्मात् ही अश्वत्थामा उठकर खड़ा हो गया, ‘‘आश्रम के दिनों में वे मित्र थे।’’
‘‘ठीक है ! किंतु क्या जीवन में संबंध सदा स्थिर ही रहते हैं ? वे बनते-बिगड़ते नहीं ? उनमें उतार-चढ़ाव नहीं आता, या उनमें सघनता-विरलता नहीं होती ?’’

‘‘बात संबंधों की नहीं है।’’ इस बार दुर्योधन बोला, ’’द्रुपद ने आश्रम के दिनों में आचार्य को यह वचन दिया था कि पंचाल का राज्य जितना उसका होगा, उतना ही आचार्य का भी होगा।’’
‘‘द्रुपद तब एक बालक थे; हस्तिनापुर में तो आचार्य का स्वागत करते हुए पितामह तथा स्वयं महाराज ने कहा था कि कौरवों का जो कुछ भी है, वह सब उनका है।’’ युधिष्ठिर बोला, ‘‘अब आज यदि आचार्य चाहेंगे, तो महाराज कौरवों का सारा राज्य, आचार्य को सौंप स्वयं वनवास के लिए चले जायेंगे ?’’

युधिष्ठिर ने जैसे अपनी विजयिनी दृष्टि धृतराष्ट्र पर डाली : किंतु इस बार न तो धृतराष्ट्र ने ही कुछ कहा, और न अश्वथात्मा अथवा दुर्योधन ने ही।

क्षण भर के इस मौन का लाभ उठाया विदुर ने। वह तत्काल बोला, ‘‘महाराज ! हम यहाँ आचार्य के आचरण का विश्लेषण कर, उस पर कोई टिप्पणी करने नहीं बैठे। हमारे सामने समस्या अपने दिग्विजय के आह्वान की है। मैं समझता हूँ कि युवराज की इतनी बात से तो हम सहमत हो ही सकते हैं कि इस समय जब हमारे चारों ओर विभिन्न शक्तियों की सेनाएँ प्रयास करती दिखायी पड़ रही हैं, दिग्विजय के इस अभियान में अपनी शक्ति का ह्रास करना अनावश्यक होगा।’’
‘‘दिग्विजय से शक्ति का ह्रास नहीं, विकास होता है।’’ धृतराष्ट्र बोला।

‘‘युद्ध से सेनाएँ थकती हैं महाराज ! आंशिक रूप से नष्ट भी होती हैं।’’ विदुर बोला, ‘‘और सबसे बड़ी बात तो यह है कि प्रत्येक सैनिक-अभियान के पीछे कोई कारण भी होना चाहिए, ऐसा कारण जो नीति-सिद्धि भी हो। अकारण युद्ध कभी भी लाभदायक नहीं होता; और यह तो कोई कारण हो ही नहीं सकता कि किसी राज्य में युवराज्याभिषेक अथवा राज्याभिषेक ही तो वह सैनिक अभियान भी करे ही।

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